मेड इन चाइना बचकानी, कमज़ोर फिल्म-मेकिंग का एक उदाहरण है, सुकन्या वर्मा ने आह भरी।
आप सोच सकते हैं कि कहानी कितनी कमज़ोर होगी, जब कोई किरदार त्रिमूर्ति के गाने के माध्यम से आँन्ट्रेप्रिन्योर होने का ज्ञान देता है।
जी हाँ, सुभाष घई की वही बकवास फिल्म, जो किसी को याद तक नहीं है, उससे प्रेरणा लेना तो दूर की बात है।
मिखिल मुसाले की मेड इन चाइना का टाइटल एक ही बात कहता है। यह कई ऐसी थीम्स को मिला-जुला कर बनाई गयी खिचड़ी है, जो एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं।
इसमें सफल व्यापार खड़ा करने में आने वाली चुनौतियों को दिखाने की कोशिश की गयी है, लेकिन कहानी ख़ुद को रोमांचक बनाने के लिये सेक्शुअल टैबूज़ (लैंगिक निषेधों) में उलझी नज़र आती है।
और दोनों ही चीज़ें फिल्म को दिलचस्प नहीं बना पातीं।
कमज़ोर कॉमेडी और घिसे-पिटे ड्रामा के बीच, मेड इन चाइना की सबसे बड़ी कमज़ोरी है मुख्य विषय से इसका बार-बार भटकना, जिससे इस टूटी-बिखरी कहानी में दिलचस्पी और कम हो जाती है।
एक मैजिक सूप पीने के बाद एक चीनी राजनयिक की मौत हो जाती है।
दो पुलिस वाले इस अपराध की जाँच कर रहे हैं, जो ख़राब संबंध रखने वाले इन दो देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय विवाद का कारण बन सकता है, जिनपर मूवी का कोई ध्यान नहीं है।
बल्कि, कई फ़्लैशबैक्स हमें एक छोटे व्यापारी (राजकुमार राव) की पैसे बनाने की मूर्खतापूर्ण योजनाओं की झलक देते हैं, जो आगे चल कर मैजिक सूप का व्यापार शुरू करता है, जो कि इस अधिकारी की मौत का कारण है।
ईमू के अंडों से लेकर नेपाली चटाइयों तक, इस आदमी ने सभी कोशिशें की हैं, और हर कोशिश असफल रही है।
अब तक हम हकलाते, लड़खड़ाते, मुस्कुराते ख़ूबसूरत दिल वाले कमज़ोर इंसान के रूप में राजकुमार राव की काबिलियत को अच्छी तरह पहचान चुके हैं, जिसके कारण यह किरदार हमें नया नहीं लगता। भद्दी सी मूंछ और थेपले के प्रति प्यार जताने वाला गुजराती लहज़ा इसे और हास्यापद बना देता है।
देखा जा सकता है कि इस किरदार को व्यापार की कोई समझ नहीं है।
लेकिन मुसाले की स्क्रिप्ट आप पर दबाव डालती है कि आप उसे अपनी सूझ-बूझ से सफल होने वाले दिग्गज व्यापारी के रूप में स्वीकार करें।
और कहानी बीच-बीच में राव और उसकी पत्नी (मौनी रॉय) के बीच प्यार दिखा कर ध्यान भटकाती रहती है।
वो उसके आइब्रोज़ बनाती है, तो ये उसकी सिगरेट जलाता है।
दिखाने का मक़सद है यह बताना कि हम एक खुले विचारों वाले लॉन्ड्री साझा करने वाली जोड़े को देख रहे हैं।
और निश्चित रूप से कहानी का यह हिस्सा बेमतलब है।
रॉय इस कहानी में अपनी ख़ूबसूरती दिखाने और और राव की बनावटी सफलता की भरपाई करने से ज़्यादा कुछ नहीं करतीं।
चीन में हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की बात करें, तो यहाँ एक व्यक्ति की कहानी सुनकर वह उसका कज़िन (सुमीत व्यास) बनने के लिये तैयार हो जाता है और एक मदद का हाथ बढ़ाने वाले पूंजीपति (परेश रावल) से मार्केटिंग के मंत्र सीखने लगता है।
गजराज राव (अच्छा अभिनय, जो पूरी तरह बेकार गया है) को इस उलझी कहानी में मार्केटिंग गुरु के रूप में लाया गया है, जो ‘सपना सेव पुरी नहीं होता। उसे सस्ता मत समझो’ जैसे घटिया वन-लाइनर्स पेश करता रहता है।
जैसे ही मेड इन चाइना ख़ुद को रॉकेट सिंह: सेल्समैन ऑफ़ द इयर का एक कमज़ोर भाई बनाने में सफल होती है, वैसे ही इसमें ख़ानदानी शाफ़ाख़ाना की झलक मिलनी शुरू हो जाती है, जब राव अनुभवी सेक्सोलॉजिस्ट (बमन ईरानी) को अपने मर्दानगी बढ़ाने वाले प्रॉडक्ट, मैजिक सूप के प्रचार के काम में लगाते हैं।
यौन शिक्षा को सामान्य बनाने और इसकी चर्चा शुरू करने की कोशिशों को देखते हुए ऐसा लगता है कि बॉलीवुड ने सेक्स एड्युकेशन मिशन चलाने की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली है।
हालांकि यह सोच तो अच्छी है, लेकिन इसमें कोई दिशा न होना इसे सोनाक्षी सिन्हा की फिल्म की तरह ही कमज़ोर बना देता है।
उसी तरह यह कहानी भी अदालत में ख़त्म होती है और बार-बार कहती है कि क्यों इस तरह की ग़लत सोच से देश में लैंगिक अपराध बढ़ रहे हैं।
अगर कहानी को बारीकी से लिखा गया होता, तो बमन ईरानी की वाजिब दलीलें (और इस रोल में अच्छा ठहराव, जिसमें आसानी से उनका ज़्यादा रोमांचित रूप देखा जा सकता था) कुछ असर दिखा सकती थीं।
लेकिन मेड इन चाइना का बचपना तब दिखाई देता है जब यह कहानी सिर्फ व्यंग्योक्तियों में ही अपनी सूझ-बूझ दिखाने की कोशिश करती है -- बार-बार टाइगर पेनिस सूप की बात, होटल पेनिंसुला में योजना के अनुसार फ़्यूज़ हुए बल्ब, और 3 ईडियट्स जैसी दुविधा की स्थिति, जब ईरानी पेरेंट-टीचर मीटिंग को यौन समस्याओं की चर्चा का सेमिनार समझ लेते हैं।
इस बात-चीत में आगे किसी की शिकायत सुनाई देती है, 'बल्ब जल जाता है। आग नहीं लगती'।
मेड इन चाइना की कमज़ोर फिल्म-मेकिंग इसी बेकार बल्ब की तरह है।