अथिया शेट्टी एक सरप्राइज़ के रूप में उभर कर आयी हैं, लेकिन फिल्म में बाक़ी कुछ भी देखने लायक नहीं है, सुकन्या वर्मा ने बताया।
ऐसा लगता है जैसे छोटे शहरों में लड़के-लड़कियों और उनकी शादी के पीछे पड़े परिवारों से ज़्यादा कुछ नहीं होता। बॉलीवुड इस घिसी-पिटी सोच से काफ़ी चिपक सा गया है। हमने इस सोच पर आधारित काफ़ी कहानियाँ देखी हैं, जिनमें से कुछ के अनोखेपन की हमने तारीफ़ की है, तो कुछ के घिसे-पिटे अंदाज़ की आलोचना, और अब यह बात बेहद उबाऊ लगने लगी है।
तीखे ताने, सिमटी विचारधारा का माहौल, विचित्र रिश्तेदार, सामाजिक बेड़ियों को तोड़ना -- अपनी फिल्म को औरों से अलग बनाने के लिये फिल्म-मेकर्स को इन चीज़ों से आगे बढ़ना होगा। और मोतीचूर चकनाचूर का घिसा-पिटा मई-दिसंबर वाला रोमांस इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं देता।
हालांकि मध्य प्रदेश की बोल-चाल, चारों ओर हरियाली के बीच बने मिड्ल-क्लास मकान और उनके भीतर चाय-नाश्ते पर बड़े परिवारों के बीच चलती बात-चीत भोपाल की ख़ूबसूरत झलक दिखाती है, लेकिन डायरेक्टर देबमित्रा बिसवाल की नज़रों से सिर्फ यहाँ की संकीर्ण विचारधारा ही हमारे सामने उभर कर आयी है।
आस-पड़ोस के लड़कों से शादी करने वाली अपनी सहेलियों को जलाने के लिये फॉरेन में रहने वाले दूल्हे की चाह रखने वाली अनिता (अथिया शेट्टी) उसके लिये आने वाले हर रिश्ते को ठुकराती जा रही है। इसके कारण शादी के बाज़ार में उसे दुर्लभ मोती का दर्जा मिल गया है।
अपनी कुंवारी चाची, (नासमझ किरदार में करुणा पांडे) जिसके साथ उसकी अच्छी जमती है, के कहने पर अनि की नज़रें अपने पड़ोसी के बहुत ज़्यादा उम्र के दुबई में रहने वाले बेटे, पुष्पिंदर त्यागी पर आ टिकती हैं।
उनकी उम्र और शक्ल-सूरत में 'मैं व्हॉट्सऐप, तू टेलीग्राम' का फ़ासला बार-बार यही बात कहता है कि पुष्पिंदर वो दूल्हा नहीं है जिसकी अनिता को तलाश थी।
दोनों की बस एक बात मिलती है, रिश्ते के लिये उनकी आतुरता। लड़का अपनी उम्र के चौथे दशक में है और पहली बार किसी लड़की के क़रीब आने के लिये बेताब है। लड़की किसी भी लड़के से शादी करने को तैयार है अगर वह 'बड़ा वाला विदेश' में रहता हो।
इसके बाद मज़ाक-मस्ती और दिल टूटने का सिलसिला शुरू होता है। मोतीचूर चकनाचूर में अकेलेपन के शिकार पुष्पिंदर की शादी की जल्दी या उसकी ज़ोर चलाने वाली माँ (काफ़ी दबंग विभा छिबेर) का उसे बेटी के दहेज का जुगाड़ करने वाली सोने की मुर्गी मानना समझ में आता है, लेकिन अनिता के दिमाग़ का फ़ितूर बिल्कुल समझ में नहीं आता।
मोतीचूर चकनाचूर में सही कारणों से शादी करने, अपने बलबूते पर सपने देखने और माता-पिता के दबाव पर दी गयी थोड़ी-बहुत सीख तब फीकी पड़ जाती है, जब यह फिल्म नवाज़-अथिया के बीच की असंभव, विचित्र केमिस्ट्री के पीछे छिपी पिछड़ी विचारधारा पर पर्दा डालने की कोशिश करती है।
जहाँ नवाज़ ने अपने संकोची, सीधे-साधे किरदार को बख़ूबी निभाया है, वहीं दूसरी ओर अथिया शेट्टी अनिता की बनावटी मानसिकता के प्रदर्शन में एक सरप्राइज़ बन कर सामने आयी हैं। काश यही बात इस फिल्म के भटके हुए आदर्शवाद और फूहड़ क्लाइमैक्स के बारे में भी कही जा सकती।
इसमें दहेज का गंभीर मुद्दा भी उठाया गया है लेकिन इसका विरोध करने की जगह इसे सामान्य प्रथा के रूप में दिखाया गया है। अपने बनावटी सपनों को पूरा करने की ओर अनिता का झुकाव समाज में पुरुष-प्रधानता की विचारधारा को और मज़बूत करता है।
एक दृश्य में पुष्पिंदर का संवेदनशील, समझदार व्यक्तित्व राह भटक जाता है, लेकिन उसके शर्मिंदा होने की जगह अनिता को घुटने टेकने पड़ते हैं। चकनाचूर, सचमुच।