'इसके कम्प्यूटर ग्राफिक्स -- जंगलों और ख़ूबसूरत नज़ारों की अद्भुत डीटेलिंग -- की जितनी तारीफ़ की जाये कम है, लेकिन इसकी वास्तविकता पर सवाल ज़रूर उठाये जा सकते हैं।'
'और न ही यह द लायन किंग के नाटकीय प्लॉट के उत्साह से मेल खाता है,' सुकन्या वर्मा का कहना है।
द लायन किंग डिज़्नी के सपनों के कारखाने से निकली बाप-बेटे की कहानी है, जो उस दौर में आई थी जब भावनाओं का महत्व अर्थव्यवस्था के जितना हुआ करता था और शेक्सपियर की लिखावट के ख़ूबसूरत अंदाज़ में ढले इसके एनिमेशन ने हर उम्र के दर्शकों का दिल जीता था।
25 साल पहले जब मैंने इसे पहली बार देखा था, तो मैं मौत, दर्द या अफ़सोस की भावनाओं को रंगीन तसवीरों के रूप में न परोसने के इसके अंदाज़ से बेहद प्रभावित हुई थी।
मुफ़ासा को किसी ख़ूबसूरत, सुनहरे किनारों वाले काँच के ताबूत में नहीं रखा गया था और सराबी के प्यार और सिम्बा के अफ़सोस की कोई भी हद उसे वापस नहीं ला सकती थी।
कोई परी माता स्कार पर जादू की छड़ी घुमा कर सिम्बा को राजा नहीं बना सकती थी।
द लायन किंग को दिखाने का दंत कथा वाला अंदाज़ बाम्बी और द फ़ॉक्स ऐंड द हाउंड की तरह कहानी को घिच-पिच से दूर रखता है, भले ही इसके किरदार भड़कीले गाने और नाच के साथ अपने स्वभाव के दायरे से बाहर क्यों न निकल जायें।
अपनी पुरानी लोकप्रिय कहानियों को दुबारा पेश करने की डिज़्नी की मौजूदा परंपरा की एक और कड़ी के रूप में लाई गयी जॉन फेवरो की सजीव लगने वाली इस कम्प्यूटर एनिमेटेड रीमेक में तकनीकी आधुनिकता और वर्तमान वास्तविकता के बीच का 'नाज़ुक संतुलन' नहीं दिखाई देता, जो इसकी एक कमज़ोरी है।
मेलफिसेंट, द जंगल बुक या अलादीन की तरह इसमें वास्तविक कहानी को आज के दौर के अनुसार घुमाया नहीं गया है, बल्कि द लायन किंग जाँची-परखी राह पर ही चलने की कोशिश करता है।
सिर्फ इसके विज़ुअल्स और वॉइस ऐक्टिंग ने ही इसे औरों से अलग बनाया है।
इसके कम्प्यूटर ग्राफिक्स -- जंगलों और ख़ूबसूरत नज़ारों की अद्भुत डीटेलिंग -- की जितनी तारीफ़ की जाये कम है, लेकिन इसकी वास्तविकता पर सवाल ज़रूर उठाये जा सकते हैं। और न ही यह द लायन किंग के नाटकीय प्लॉट के उत्साह से मेल खाता है।
1994 की फिल्म रंगों और कोरियोग्राफी के अनोखे संगम, हरे-भरे घास के मैदानों में डूबते सूरज और सितारों से भरी रातों के दृश्य, प्रकृति की ख़ूबसूरती, हकूना मटाटा और सर्कल ऑफ़ लाइफ़ को दिखाने के शानदार अंदाज़ से भरी हुई थी। कम शब्दों में कहा जाये, तो वह फिल्म 88 मिनट की एक ख़ूबसूरत कविता थी।
फेवरो द्वारा दिखाई गयी प्राइड लैंड -- या गौरव भूमि, अगर आप मेरी तरह हिंदी डब देख रहे हैं -- में भी ये सभी नज़ारे हैं, लेकिन उनके पीछे छुपी ख़ूबसूरत भावनाऍं लापता हैं।
ऐसा लगता है जैसे एक ख़ूबसूरत कहानी के निष्ठुर रूप को 3डी चश्मों ने और भी ख़राब कर दिया हो।
25 साल देर से इस मूवी को देखने वाले सभी दर्शकों को मैं फिल्म का एक रीकैप देना चाहूंगी।
एक राजा का दुष्ट भाई सत्ता हथियाने के लिये राजा की हत्या कर देता है और उसका दोष उसके नन्हे भतीजे पर मढ़ देता है।
भतीजा भाग जाता है और बेफिक्र, अल्हड़ दोस्तों के साथ बड़ा होता है और बाद में उसके भीतर छुपा उसके पिता का शौर्य उसे अपने चाचा से लड़कर अपनी सत्ता वापस लेने के लिये प्रेरित करता है।
जहाँ एक ओर सुपर 30 ने कहा है कि 'अब राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा', वहीं दूसरी ओर द लायन किंग की पूरी तरह राज्याधिकार की पुरानी परंपरा पर आधारित है।
राज्याधिकार की यही नीति बॉलीवुड पर भी लागू होती है। और शाह रुख़ ख़ान की वाचाल शक्ति को मुफ़ासा के किरदार में, जबकि उनके बेटे की आवाज़ को पहली बार सिम्बा के रूप में परोसने से बेहतर और क्या हो सकता था।
'किंग' ख़ान की दमदार और ख़ूबसूरत आवाज़ तुरंत दर्शकों को जोड़ लेती है।
शायद यह कुछ ज़्यादा ही कठोर भी है, जैसे शाह रुख़ जेम्स अर्ल्स जोन्स के लिये आवाज़ दे रहे हों। कई बार यह बॉलीवुड के अंदाज़ में भी उतर आती है, जब उनका हकलाने वाला जाना-पहचाना अंदाज़ सामने आता है और वह सिम्बा को उसी काँपती आवाज़ में पापा बुलाते हैं, जिस आवाज़ में उन्होंने अंजलि को बुलाया था।
आर्यन काफ़ी हद तक अपने पिता के जैसे ही सुनाई देते हैं, लेकिन उनकी आवाज़ ज़्यादा तालबद्ध और ज़्यादा भावनात्मक लगती है।
उन्होंने इस मंच पर आकर अच्छा प्रदर्शन किया है।
आशीष विद्यार्थी ने स्कार के धूर्त किरदार की आवाज़ का पूरा मज़ा लिया है।
संजय मिश्रा और श्रेयस तलपडे ने भी अपने किरदारों का पूरा आनंद लिया है, जिनके किरदार वॉर्टहॉग पुम्बा और मीयरकैट टाइमन एक दूसरे से मुंबइयॉ टपोरियों की तरह बात करते हैं। जो कि बिल्कुल मज़ेदार नहीं है।
नेहा गार्गवा की नाला और शर्नाज़ पटेल की सराबी ने कोई छाप नहीं छोड़ी है।
शेंज़ी (अचिंत कौर की कान में चुभने वाली भयानक चहचहाती आवाज़) के नेतृत्व वाली हाइना तिकड़ी बिहारी अंदाज़ में बात करती है। हाइना का ख़ौफ़नाक अंदाज़ छोटे बच्चों के लिये थोड़ा डरावना हो सकता है।
लेकिन लाल चोंच वाले हॉर्नबिल ज़ाज़ू के लिये आवाज़ देने वाले असरानी ने यहाँ बाज़ी मार ली है। उनकी ज़िंदादिल अभिव्यक्ति और सूझ-बूझ बहुत ही मज़ेदार लगती है और उन्होंने अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर और यमराज के दूत वाले शब्दों को दुहरा कर दिल जीत लिया है।
काश स्टूडियो ने बेहतर लेखन पर भी ध्यान दिया होता।
हिंदी अनुवाद ज़्यादातर जगहों पर बकवास और निष्ठुर है, जो कहानी के मज़ाकिया अंदाज़ और सूझ-बूझ दोनों को ले डूबा है।
अगर आप एक ख़ूबसूरत कहानी की बनावटी चित्रित पेशकश देखने में या 'किंग बनने के लिये तैयार' एक स्टार के बेटे की पहली कोशिश देखने में दिलचस्पी रखते हैं, तो यह फिल्म ज़रूर देखें।
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