मरजावाँ की बकवास कहानी को कोई नहीं बचा सकता, सुकन्या वर्मा न ऐलान किया।
मरजावाँ की दुनिया को बारीकी शब्द का मतलब पता ही नहीं है।
हिंदू विलेन एक बड़ा तिलक लगाता है।
मुसलमान साइडकिक एक सफेद टोपी पहनता है।
ख़ामोश, फ़रिश्ते जैसी हीरोइन आज भी पुरानी सोच में सजी हुई है, जबकि सोने के दिल वाली इस वेश्या का व्यापार फल-फूल रहा है।
और हीरो लाल-काले कपड़ों, माथे पर पट्टी और धमाकेदार डायलॉग्स के साथ बॉलीवुड के जाने-पहचाने भिड़ू की झलक एक बौने विलेन के सामने पेश कर रहे हैं, जिससे कोई लड़ना नहीं चाहता।
उन्हें ज़बर्दस्ती लड़ाया गया है, जिसके लिये दशहरे के दिन से बेहतर मौका हो ही नहीं सकता था -- जो हर ग़लत काम के लिये बॉलीवुड का मनपसंद दिन रहा है -- और यही लड़ाई इस बकवास कहानी का मुख्य उद्देश्य है।
लेखक और डायरेक्टर मिलाप ज़वेरी का मसाला मूवीज़ से प्यार एक बार फिर एक घिसी-पिटी फिल्म सामने लाया है, जो भावनाओं और ख़ौफ़ के प्रदर्शन के लिये बेहद पुराने तरीकों को आज़मा रही है।
देओल, दत्त और शेट्टी के ज़माने में अच्छी लगने वाली हीरो, आतिश और ऐसी कई अन्य फिल्मों के अंदाज़ से आपका दिल न भरा हो, तो इस कहानी में रितेश देशमुख की परेशानी को महत्व देने के लिये ज़वेरी ने सत्ते पे सत्ता के बाबू की थीम को दुबारा आज़मा कर देखा है।
यह कहानी हमें उन दिनों में वापस ले जा रही है, जहाँ निरूपा रॉय की तरह माँ अपने बेटों को दफ़नाने के लिये गाड़ी खींच रही है, रेखा बनने की नाकाम कोशिश करती अदाकाराऍं सलाम-ए-इश्क़ पेश कर रही हैं, हमारे बिहार में एक कहावत है के तकिया कलाम लिये दबंग पुलिस वाले घूम रहे हैं और सलमान के फैनबॉइज़ हीरो से प्यार करने वालों में सबसे आगे हैं।
ज़वेरी का यह बेस्वाद मसाला वास्तविकता से इतनी दूर है -- इसके किरदार 'मंदिर और मस्जिद दोनों मिलेगा' और कश्मीर में म्यूज़िक कॉम्पिटीशन जैसी बातें करते हैं -- कि इसे गंभीरता से लेना संभव ही नहीं है।
हनुमान चलीसा और अल्लाह अल्लाह के गूंजते नारे सामुदायिक भाईचारे की झलक देते हैं और बहादुरी का मतलब दो दर्जन लोगों को स्लो-मोशन में हवा में उड़ाना होता है।
लेकिन इन सबके बीच बड़े दिलवाला गुंडा (सिद्धार्थ मल्होत्रा), जो बोल नहीं सकता, अपने पिता समान बॉस (नासर) के ख़िलाफ़ जाकर लड़की (तारा सुतारिया) का समर्थन करता है, जिससे बॉस के लड़के (देशमुख) का ख़ून खौल उठता है, जो कभी चुप नहीं रह सकता।
बॉस के लड़के को अपने छोटे कद से शिकायत है, पिता संबंधी परेशानियाँ हैं जो स्पॉन्ज केक जितनी मुश्किल हैं, और पहेलियों में बात करने की आदत है, जिन्हें सुलझाने में किसी की दिलचस्पी नहीं है।
रितेश देशमुख ने अपने लिये लिखे गये कमज़ोर हिस्सों को बख़ूबी निभाया है, लेकिन विलेन के तौर पर उनका किरदार इतना महत्वहीन और बेबुनियाद है, कि उनकी कर्कश आवाज़ और बेहूदा हँसी उनकी ही तकलीफ़ को और बढ़ाती नज़र आती है।
सिद्धार्थ मल्होत्रा ज़वेरी की तुकबंदी वाले अंदाज़ में बात करने में तो सफल रहे हैं -- मारूंगा कनपटी पे, मिटेगा गणपति पे -- लेकिन अपने ग़रीब फटेहाल किरदार को हमारे सामने परोसने में नहीं।
तारा सुतारिया इशारों पर मुस्कुराती और सिसकती हैं।
रकुल प्रीत रीमिक्सेज़ की धुन पर थिरकती हैं।
यह हास्यास्पद किरदारों का एक बेमतलब मेल है।
मरजावाँ की बकवास कहानी को कोई नहीं बचा सकता -- न मल्होत्रा की उंगलियों पर बने धार्मिक चिह्न, न ढाई घंटों तक लोगों को दिया गया सिरदर्द, न ही कान में चुभने वाला बैकग्राउंड स्कोर, न ही इसकी बासी कहानी, न ही भीमकाय गुंडे, न झूठी बरसात, न ही सस्ता ख़ून, न इसका माइक्रोवेव रोमांस, न ज़बर्दस्ती की दुश्मनी, न तो बार-बार दुहराये गये मुहब्बत और इबादत के शब्द और न ही बार-बार गूंजती अरिजित सिंह की चीखें।